Tuesday 14 May 2013

Hadeesi Hadse 84




बुख़ारी १४०२ 
मुहम्मद कहते हैं 
"एक शख्स अपनी तहबन्द लुथड़ाते हुए ज़मीन पर चल रहा था . अल्लाह तअला ने उसे ज़मीन में धंसा दिया .क़यामत तक यूँ ही वह ज़मीन में धंसता रहेगा ."  
* मुल्ला अपने रसूल की बात को इस तरह साबित करते हैं कि अगर यक़ीन न हो तो कानों में उंगलियाँ ठूंस कर उस की धँसने की आवाज़ को सुन सकते हो. 
पिछली हदीसों में था कि कुरता ज़मीन पर लुथड़े तो जन्नती होने की अलामत है . मुहम्मद की कठ बैठियों में भी कोई ताल मेल नहीं . जो उनके मुंह से निकला, वह मुसलमानों के लिए हदीस शरीफ हो गया .आज कल मुल्लाओं की हुलिया इसी हदीस के असर में देखी जा सकती है . ज़माने से अलग, कार्टून नुमा .

मुस्लिम - - -किताबुल अश्रबता 
मुहम्मद कहते हैं जब रात की तारीकी छा जाए तो बच्चों को घर से बाहर नहीं निकलने देना चाहिए, क्योंकि शैतान इस वक़्त फ़ैल निकलते हैं , फिर जब एक घडी रात गुज़र जाए तो  इनको छोड़ दो और दरवाज़ा बंद कर दो और अल्लाह तअला का नाम लो, इस लिए कि शैतान बंद दरवाज़े नहीं खोलता और अपनी मश्कों पर डाट लगा दो और अल्लाह का नाम लो. अगर कुछ बर्तन ढकने को न मिले तो इसे आड़ा कर के कुछ रख दो . अपने चरागों को बुझा दो .
* यह हिदायत उस ज़माने के तौर तरीके रहे होंगे , मगर क्या इस ज़माने के लिए यह बातें निसाब ए हयात बनाई जा सकती है ? उस वक़्त भी जगे हुए लोग थे जिनकी पैरवी हुवा करती थी और लाखैरे भी थे जिनके सरदार मुहम्मद थे , उनकी उम्मत आज तक उनकी पैरवी करती चली आ रही है .

बुख़ारी १४०७ 
ख़िलाफ़त कुरैश के लिए 
मुहम्मद कहते है 
"जब तक कुरैश में से दो लोग भी बाकी बचेंगे , ख़िलाफ़त कुरैश के हाथों में ही होगी "
** सच पूछिए तो इस्लाम की रूह में मुहम्मद का ख्वाब अपने क़बीले को सरफ़राज़ करने तक महदूद था. वाक़िया है कि मुहम्मद ने सबसे पहले बनी हाशिम को इकठ्ठा करके, दरपर्दा मीटिंग की थी और कहा था कि
" तुम लोग मुझे पैगम्बर तस्लीम कर लो तो मेरे लिए आसान हो जाएगा की मैं रसूल अल्लाह बन जाऊं, मैं अगर अपने मंसूबे में कामयाब हुवा तो इसका फ़ायदा तमाम कुनबे को मिलेगा और अगर नाकाम रहा तो नुकसान सिर्फ मेरा होगा की मार दिया जाऊँगा।" 
मेरी कामयाबी पर बनी हाशिम क़ुरैश में बरतर होंगे , 
क़ुरैश अहले अरब में बरतर होगे , 
अरब पूरी दुन्या में बरतर होगा 
और मक्का दुन्या का मरकज़ बन जाएगा
और काबा दुन्या की इबादत गाह. 
इससे अहले मक्का क़यामत तक फ़ैज़याब होते रहेंगे . "
बनी हाशिम ने मुहम्मद की तजवीज़ को ठुकरा दिया और आजके मुसलमानों की तरह ही अपने आबाई दीन पर कायम रहने की क़सम खाई . मुहम्मद की उलटी फ़ज़ीहत हुई, लोगों में उनके लिए नफ़रत का बाब खुल गया .
जब यह हरबा मुहम्मद का कामयाब न हुवा तो अपनी बीवी खदीजा को लेकर मक्र की राह चुनी. ग़ार हिरा में बैठ कर मंसूबा बंदी करते और खुद पर वाहियों (ईश वाणी) का खेल खेलना शरू किया .
क़ुरैश ही थे जिन्होंने इनकी भरपूर मुखालिफत की थी, कामयाबी के बाद मुहम्मद उनको नवाज़ रहे हैं की उनकी विरासत उनके खानदान में ही रहे .
हम लोग कुरैशियों के जेहनी गुलाम है. 
अफ़सोस कि कल के वहशी , लड़ाके और जाहिल क़बीले की गुलामी को हम ओढ़ बिछा रहे है. 


जीम. मोमिन 

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