
दर्जात ए इंसानी
अव्वल दर्जा लोग
मैं दर्जाए-अव्वल में उस इंसान को शुमार करता हूँ जो सच बोलने में ज़रा भी देर न करता हो, उसका मुतालिआ अश्याए कुदरत के बारे में फितरी हो (जिसमें खुद इंसान भी एक अश्या है.) वह ग़ैर जानिबदार हो, अक़ीदा, आस्था और मज़हबी उसूलों से बाला तर हो, जो जल्द बाज़ी में किए गए "हाँ" को सोच समझ कर न कहने पर एकदम न शर्माए और मुआमला साज़ हो. जो सब का ख़ैर ख्वाह हो, दूसरों को माली, जिस्मानी या जेहनी नुकसान, अपने नफ़ा के लिए न पहुंचाए, जिसके हर अमल में इस धरती और इस पर बसने वाली मखलूक का खैर वाबिस्ता हो, जो बेख़ौफ़ और बहादर हो और इतना बहादर कि उसे दोज़ख में जलाने वाला नाइंसाफ अल्लाह भी अगर उसके सामने आ जाए तो उस से भी दस्तो गरीबानी के लिए तैयार रहे. ऐसे लोगों को मैं दर्जाए अव्वल का इंसान, मेयारी हस्ती शुमार करता हूँ. ऐसे लोग ही हुवा करते हैं साहिबे ईमान यानी ''मरदे मोमिन
दोयम दर्जा लोग
मैं दोयम दर्जा उन लोगों को देता हूँ जो उसूल ज़दा यानी नियमों के मारे होते हैं. यह सीधे सादे अपने पुरखों की लीक पर चलने वाले लोग होते हैं. पक्के धार्मिक मगर अच्छे इन्सान भी यही लोग हैं. इनको इस बात से कोई मतलब नहीं कि इनकी धार्मिकता समाज के लिए अब ज़हर बन गई है, इनकी आस्था कहती है कि इनकी मुक्ति नमाज़ और पूजा पाठ से है. अरबी और संसकृति में इन से क्या पढाया जाता है, इस से इनका कोई लेना देना नहीं। ये बहुधा ईमानदार और नेक लोग होते हैं. भोली भली अवाम इस दर्जे की ही शिकार है धर्म गुरुओं, ओलिमाओं और पूँजी पतियों की. हमारे देश की जम्हूरियत की बुनियाद इसी दोयम दर्जे के कन्धों पर राखी हुई है.
सोयम दर्जा लोग
हर कदम में इंसानियत का खून करने वाले, तलवार की नोक पर खुद को मोह्सिने इंसानियत कहलाने वाले, दूसरों की मेहनत पर तकिया धरने वाले, लफ़फ़ाज़ी और ज़ोर-ए-क़लम से गलाज़त से पेट भरने वाले, इंसानी सरों के सियासी सौदागर, धार्मिक चोले धारण किए हुए स्वामी, गुरू, बाबा और साहिबे रीश ऑ दुस्तार ओलिमा, सब के सब तीसरे और गिरे दर्जे के लोग हैं. इन्हीं की सरपरस्ती में देश के मुट्ठी भर सरमाया दार भी हैं जो देश को लूट कर पैसे को विदेशों में छिपाते हैं. यही लोग जिसका कोई प्रति शत भी नहीं बनता, दोयम दर्जे को ब्लेक मेल किए हुए है और अव्वल दर्जा का मजाक हर मोड़ पर उडाने पर आमादा रहते है. सदियों से यह गलीज़ लोग इंसान और इंसानियत को पामाल किए हुए हैं।
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बुखारी १०३१-१०३५
फ़तेह खैबर के बाद वहां की खेती की आधी पैदा वार मुहम्मद ने अपनीबीवियों के हक में मख़सूस कर दिया था, यह भी मुक़र्रर कर दिया था किकम से कम मिक़दार आशिया का यह ( ) हो, यानि अगर मिक़रार से पैदावार कम हो तो भूखे नंगे किसान अपनी जेब से निकल कर अदा करें.
*मुसलमानों! यह थी तुम्हारे पैगम्बर की गलीज़ पैगम्बरी.
यहूदियों की आबादी से भरपूर, खैबर पर पूरी किताब लिखी जा सकती है जो मुहम्मद के ज़ुल्म से भरी हुई होगी. आज यहूदी इन मुहम्मदियों पर जितना बी ज़्यादती करें कम होगी.
मुल्लाओं ने कितना झूठा प्रचार कर रखा है कि माल ओ मता से बे नयाज़मुहम्मद मरने के बाद सिर्फ़ सात दरहम विरासत में छोड़ा? उनकीबेगमात फ़ाक़ा पर फ़ाक़ा करतीं.
बुखारी १०३९
मुहम्मद तक़रीर कर रहे थे कि उनके पास एक देहाती हाज़िर जवाब बैठा हुवा था. उसको निशाना बनाते हुए तक़रीर खेती बाड़ी पर आ गई. कहा "जन्नत में एक किसान ने ख्वाहिश ज़ाहिर की कि जन्नत में क्या खेती हो सकती है?"
अल्लाह ने कहा "क्यों यहाँ तुझे क्या कमी है? "
"उसने कहा मुझे खेती बहुत अच्छी लगती है" ( ताकि हम कोई चीज़ अपनी ज़ात से तकमील करते रहें)
फरमान होगा "अच्छा जा करके देख."
दहकान ज़मीन में बीज बोता रहा और दूसरे छोर पर पहुँचा तो बोए हुए बीजों की फसल तैयार होती गई.
फ़रमान होगा "ए इब्न ए आदम तू हरीस है कि तू किसी चीज़ से मुतमईन नहीं होता."
दहक़ान जिस पर मुहम्मद वार कर रहे थे, बोला
"वह शख्स कोई कुरैश होगा या फिर अंसार."
उसके जवाब से मुहम्मद खिसयानी हँसी हसने लगे.
*कई हदीस गवाह हैं कि मुहम्मद अन्न दाता किसान को पसंद नहीं करते थे.
जिहाद को हर काम से बेहतर ख़याल करते.
बुखारी १०४४
मुहम्मद कहते हैं उनका अल्लाह उन तीन किस्म के बन्दों से कभी राज़ी नहीं होगा, १+२ तो बस यूँ ही हैं मगर तीसरी काबिले ज़िक्र है ?
"जो शख्स असर के वक़्त दुकान सजाएगा और झूटी क़सम खाएगा कि मुझे फलाँ सामान के इतने मिल रहे थे."
*मुस्लमान अपने पैगम्बर की हर बात पर वाह वाह करते हैं मगर उसकीगहराई में कभी नहीं जाते. क्या अस्र बाद ही सच बोलना चाहिए? पूरे दिनक्यों न ईमान दारी से तिजारत करनी चाहिए.
बुखारी १०४६
मुंतकिम अल्लाह के मुन्तकिम रसूल अपनी इन्तेकामी फ़ितरत से इस क़दर लबरेज़ हैं कि कहते हैं
"मैं हौज़ क़ौसर से कुछ लोगों को इस तरह भगा दूंगा जैसे अजनबी ऊँट को पानी पीने की जगह से भगा दिया जाता है."
हौज़ क़ौसर क्या हैं? पहले तो इसे जानें - - -
मुहम्मद के नाजायज़ बेटे लौंडी ज़ादे इब्राहीम की मौत जब लोहार के घर,धुंए से दम घुटने पर हो गई तो अहले मदीना औरतों ने मुहम्मद को बड़ेतअने तिशने दिए थे कि
"बनते हैं अल्लाह के नबी, बुढ़ापे में एक लड़का हुवा तो उसे भी इनका अल्लाह न बचा सका"
खिस्याए मुहहम्मद ने "सूरह ए क़ौसर" अल्लाह से उतरवाई कि
"ऐ मुहम्मद ! तू ग़म न कर तुझको मैंने अपनी जन्नत में फैले हौज़ ए क़ौसर का निगरान बनाया."
*वह ऐसे निगरानी करेंगे कि जन्नत्यों को भी अजनबी ऊंटों की तरह बैरंग वापस कर देंगे.
दूसरी तरफ यही उम्मी कहते हैं कि जन्नत में कोई भूखा प्यासा नहीं रहेगा, दिल चाहेगा शराब पीने का, शराब लिए हूर ओ गिलमा हाज़िर होंगे.
यहाँ कहते हैं लोग प्यासे ऊँट की तरह पानी के लिए जन्नत में भटकतेहोंगे.
मज़े की बात ये है कि मुसलमान ऐसी मुतज़ाद बातों पर यकीन भी करते हैं.
बुखारी १०४७
मुहम्मद कहते हैं "अल्लाह उस शख्स से कभी राज़ी न होगा जो पानी रखते हुए प्यासे को न पिलाए."
*अभी पिछली हदीस में मुहम्मद प्यासों को अजनबी ऊँट की तरह भगाते हैं. गोया नादानी में खुद जहन्नम रसीदा हुए.
मुसलमानों! तुम ही कहो कि तुम्हारे माबूद नुमा मोहमद को क्या नाम दें?
बुखारी १०५०
"अली कहते हैं कि जंग ए बदर में मुझे एक ऊँट ग़नीमत में मिला था और एक उनके ससुर मुहम्मद ने बतौर अतिया दिया था. मेरा मंसूबा यह बनाकि इन ऊंटों पर मैं अज़ख़र घास लाद कर लाया करूंगा, इसे बाज़ार में फ़रोख्त कर के पैसे इकठ्ठा करूंगा फिर उसके बाद फ़ातिमा का वलीमाकरूंगा जो कि अभी तक बाक़ी चला आ रहा था. मैं मंसूबा बंदी कर ही रहा था कि बग़ल के मकान में हम्ज़ा (मुहम्मद के चचा) बैठे शराब पी रहे थे और सामने एक रक्कासा गाने गा रही थी जिसके बोल कुछ यूँ थे कि "वह पड़ोस में बंधे ऊंटों का कबाब खाना चाहती है."
हम्ज़ा नशे के आलम में गए और ऊंटों को ज़बा कर डाला. यह ऊँट अली के थे जिनको लेकर वह क्या क्या मंसूबा बना रहे थे. अली यह देख कर दोड़ते हुए मुहम्मद के पास गए और मुआमला बयान किया. वहां ज़ैद बिन हरसा भी मौजूद था, तीनो एक साथ हमज़ा के पास गए. उनको देख कर हमज़ा ने कहा
"तुम सब मेरे बाप के गुलाम हो."
यह सुन का मुहम्मद वहां से चले आए. यह वाक़िया तब का है जब शराब हलाल हुवा करती थी.
बस दुसरे लम्हे ही शराब हराम कर दिया.
*इस हदीस को पढने के बाद दो अहम् बातें निकल कर सामने आती हैं जिन पर आज मुसलमानों को ग़ौर करना पडेगा. पहली ये कि मुहम्मद के ज़ाती मुआमले के बाईस मुसलमानों को शराब जैसी नेमत से महरूम कर दिया. ज़रा सा मुआमला ये था कि दो ऊंटों का मुहम्मद के दामाद अली का नुकसान. क्या इस ज़रा सी बात पर दुन्या की कौमों का यह मकबूल तरीन मशरूब हराम कर देना चाहिए?
(शराब नोशी को हलाल रखने की बात अलग है जिसके लिए पूरी किताब तहरीर हो सकती है.)
दूसरी बात अली कि इल्मी और शखसी हैसियत क्या थी कि घास खोद कर बेचना जैसा अमल उनका ज़रिया मुआश था. उनकी इल्मी लियाक़त का शोर मचा हुवा है , आज उनके फ़रमूदात की लाइब्रेरियाँ भरी हुई हैं.
कितना पोल खाता है इस्लामी अक्दास में ?
जीम. मोमिन