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बुख़ारी 1289
हदीस है कि ख़लीफा उमर ने लुक़मान इब्न मक़रन को सिपह सालार बना कर मुल्क कसरा (ईरान) पर चढ़ाई का हुक्म दिया, जिसके मुक़ाबिले में कसरा की चालीस हज़ार फ़ौज सामने आ खड़ी हुई . इसमें से एक तर्जुमान बाहर आया और पूछा
"कौन लोग हो ? हमसे तुम्हारा मतलब क्या है? तुम में से कोई एक बाहर आकर हम से कलाम करेगा ?
जवाब में मुग़ीरा नाम का एक सहाबी बाहर आया और बोला - - -
क्या जानना चाहता है ?
उसने दर्याफ़्त किया, कौन लोग हो ?
मुग़ीरा बोला - - हम लोग अरब के रहने वाले हैं .
हम लोग बड़ी तंग दस्ती और मुसीबत में थे .
भूक के मारे चमड़े और खजूर की गुठलियाँ चूस चूस कर गुज़र अवक़ात किया करते थे। ऊन और बाल हमारी पोशाकें थीं।
हम दरख्तों और पत्थरों की पूजा किया करते थे।
ऐसे में अल्लाह ने अपनी जानिब से हम लोगों के लिए एक रसूल भेजा , उसी ने हम लोगों को तुम से लड़ने का हुक्म दिया .
उस वक़्त तक कि तुम एक अल्लाह की इबादत न करने लगो,
या फिर हमें जज़िया देना क़ुबूल न करो .
उसी ने हमें परवर दिगार की तरफ़ से इत्तेला दी है कि जो जिहाद में क़त्ल हो जाएगा , वह जन्नत जाएगा और जो ज़िंदा रह जाएगा , वह तुम्हारी गर्दनों का मालिक होगा "
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इस हदीस में इस्लाम की सच्ची रूहे-बद समाई हुई है।मुग़ीरा का सीधा सादा और सच्चा बयान है।
(हालाँकि इसकी हक़ीक़त यह है कि सफ़र में यह एक क़बीले को धोका देकर उनका हम सफ़र बन गया था और उनका एतमाद हासिल करके रात में उनको क़त्ल कर दिया था। इनका तमाम माल लूट कर मुहम्मद के पास आकर इस शर्त पर मुसलमान हो गया था कि इसके लूट में किसी का कोई दख़ल न होगा। मुहम्मद ने इसकी शर्त मान ली थी और इसे मुसलमान बना लिया था, क्योकि ऐसे लोगों की ही मुहम्मद को हमेशा ज़रुरत रही है .)
इस्लाम से पहले अरब अवाम के ऐसे ही हालात थे ,जैसा मुग़ीरा ने बयान किया, यहाँ तक कि वह अपनी बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न कर दिया करते थे कि उनकी परवरिश मुहाल हुवा करती थी।
मुग़ीरा अपने क़ौम का माज़ी बयान करता है जिससे अब वह नजात पा चुका है। उनके हाल पर अल्लाह का करम है कि वह जिहाद से खुश हाल हो गए हैं।
सवाल उठता है कि अरबों पर खुश हाली आई कहाँ से ?
दीगरों को बद हाल करके ?
या मुहम्मद ने फ़रिश्तों से कह कर इनकी खेतियाँ जुतवा दी थीं ? हक़ीक़त यह है कि मुहम्मद ने पहले अरबों को और बाद में मुसलमानों को पक्का क़ज़ज़ाक़ और लुटेरे बना दिया था। अफ़सोस कि मज़लूमों का कोई एक मुवर्रिख़ नहीं हुवा कि उनका मातम करने वाला होता और इस्लाम के लाखों टिकिया चोर मुवर्रिख़ और ओलिमा बैठे हुए हैं।
माले-ग़नीमत ने मुसलमानों को मालामाल कर दिया।
कितना मासूमाना और शरीफ़ाना सवाल था उस कसरा फ़ौज के तर्जुमान का कि
"कौन लोग हो ? हमसे तुम्हारा मतलब क्या है?
और कितनी जारहय्यत थी इस्लाम की कि
"ऐसे में अल्लाह ने अपनी जानिब से हम लोगों के लिए एक रसूल भेजा , उसी ने हम लोगों को तुम से लड़ने का हुक्म दिया .
उस वक़्त तक कि तुम एक अल्लाह की इबादत न करने लगो,
या फिर हमें जजया देना क़ुबूल न करो .
उसी ने हमें परवर दिगार की तरफ़ से इत्तेला दी है कि जो जिहाद में क़त्ल हो जाएगा , वह जन्नत जाएगा और जो ज़िंदा रह जाएगा , वह तुम्हारी गर्दनों का मालिक होगा "
ज़ाहिर है कोई भी हुक्मरान अपना आबाई दीन को तर्क कर के मुसलमान तो हो नहीं जाएगा।
और न थाली में सजाकर उन्हें जज़िया देने लगेगा . यह दोनों कम तो लूट मार के बाद ही हुवा करते थे।
इस तरह दुन्या में फैला इस्लाम जिसे कि आज कोर दबने पर इस्लामी आलिमान सैकुलर क़दरों का सहारा ले रहे हैं।
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जीम. मोमिन