Monday, 30 January 2012
Tuesday, 24 January 2012
Monday, 16 January 2012
Monday, 9 January 2012
Hadeesi Hadse (14)
कबरी मुआमल
"मुहम्मद की साली इस्मा से रिवायत है कि एक दिन वह अपने बहन आयशा के घर गईं, देखा दोनों कि मियाँबीवी नमाज़ में कुछ ज्यादह ही लिप्त हैं. उन्हों ने भी मुसल्लह बिछाया और नमाज़ में उनके साथ हो गई. दौरान नमाज़ इस्मा ने उन से पूछा कि खैरियत तो है? कयामत तो आने वाली नहीं ?
मुहम्मद ने मौक़ा देखा और शुरू कर दी अपनी लन तरानी.
उन पर वहियाना कैफियत तारी हो गई. और बोले मुझे, इस वक्त दो चीजें दिखाई गई, जो मै ने इससे पहले कभी नहीं देखी,
कहा जब कब्र में मय्यत रक्खी जाएगी तो इस से सवाल होगा,
क्या तू मुहम्मद को जानती है?
मय्यत अगर मोमिन होगी तो कहेगी हाँ! मैं जानती हूँ,
वह अल्लाह के सच्चे रसूल थे,
हमारे पास अल्लाह का सच्चा पैग़ाम लेकर आए थे.
हमने आपकी इत्तेबा की.
तीन बार ये सवाल पूछा जाएगा, तीनो बार मोमिन की मय्यत यही जवाब देगी.
और काफ़िर मय्यत मय्यत कहेगी हमें नहीं मालूम ।"
(बुखारी ७६)
*इस ढोंगी और जाल साज़ की बातों को सुन कर एक समझदार बच्चा भी मन ही मन मुस्कुराए बगैर नहीं रह सकता. उस वक्त की औरतें कितनी कुंद ज़ेहन या फिर शातिर ज़हन हुवा करती थीं,
आज के मुल्लाओं की तरह.
पता नहीं?
ओलिमा तो खैर क़ह्क़हः लगते हैं ऐसे रसूली मजनूं पर. मगर मुसलमानों को वह यूँ समझाते हैं कि रसूल नबी करीम ने यूँ फ़रमाया - - -
और मुहम्मद का नाम आते ही मुसलमान दोनों हाथों की चुटकियों को चूम कर आँखों पर बोसा देता है. और एक शोरे वलवला के हवाले अपने होश व् हवास को कर देता है.
सितम का उरूजी पहलू ये है कि मुसलमान मुहम्मद के नाम पर जान लेने और जान देने पर अमादः हो जाता है.
वह जब भी कभी खुद में आता है और हक़ीक़त पर संजीदः होता है तो ख्याल करता है कि हम तो चारो तरफ़ से घिरे हुए हैं और खोखले हैं, हमारी भीड़ भी खोखली है मगर वह उसे छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता.
एक दिन ऐसा आएगा ही कि उसको मजबूर होना पड़ेगा, हक को तस्लीम करने के लिए.
मुसलमानों!
मुहम्मद, मदारी का यह क़बरी डमरू तुम्हें आगाह कर रहा है कि तुम जागो.
वक़्त बहुत कम है,
बहुत पीछे हुए जा रहे हो.
उट्ठो,
इस्लाम का क़ैद व बंद तोड़ दो.
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